उत्तराखंडहरिद्वार

पहाड़ाें में पारिवारिक, सामाजिक रिश्ताें और आधि-व्याधि संक्रमणाें से बचने के लिए अनूठा लॉकडाउन    

 

डॉ० हरिनारायण जाेशी “अंजान

समाज काे स्वस्थ, पवित्र, निर्विवाद, संस्कारित चरित्रवान और अनेक प्रकार के संक्रमित राेग से बचाने के लिए साेशल इंजीनियरिंग ही नहीं साेशल स्प्रिच्युलिटी द्वारा भी जबरदस्त संरचना की गई थी जाे वर्तमान आधुनिकता में बिखर गई लेकिन उसके अवशेष बताते हैं कि रिस्ताें का व्यवहार और सम्बन्ध कैसे निर्वहन किया जाता था जिससे काेई समस्या उत्पन्न नहीं हाेती थी। बहू और जेठ एक दूसरे काे स्पर्श ताे दूर उस कमरे में भी सीधे प्रवेश नहीं कर सकते थे। यदि एक ही दरी बिछी हाे ताे उसमें पांव की ऊंगली तक नहीं रख सकते। ऐसे ही ममिया स्वसुर और बहू, बड़ी साली और जंवांई, पुफिया सास और जंवाई के मध्य हाेती है। यदि किसी तरह असावधानीवश ऐसा हाे गया ताे पुरूष काे नहाना पड़ता था। सार्वजनिक कार्याें में छूट रहती थी लेकिन समाप्ति के बाद स्नान पूजन आवश्यक था।

यदि किसी के घर बच्चा पैदा हाे जाय ताे जच्चा-बच्चा के लिए अलग कमरा हाेता था। पांचवें दिन बच्चे काे बाहर धूप दिखाई जाती थी। बच्चे और मां काे जाे भी छूयेगा बाद में गंगाजल और गाैमूत्र के मेल से नहायेगा। पांचवें दिन पंडित पंचाेला संस्कार करायेंगे। महिला २१ दिन तक सार्वजनिक कार्य नहीं करेगी, वह पानी के नल (धारा), बर्तन आदि काे भी नहीं छूयेगी। उनके परिवार में उन दिनाें काेई सार्वजनिक भाेज का आयाेजन नहीं हाेगा। नामकरण के बाद ये प्रतिबंधन स्वतः हट जाते थे। इसी प्रकार मृत्यु वाले घर में भी सुतीक माना जायेगा। शुद्धि तक । साल भर तक उनके घर में अबाजा रहेगा। हाेली दिवाली सब प्रतिबंधन। दाह संस्कार करने वालाें से भी स्नान करने तक छाैं मानी जाती थी।

सार्वजनिक भाेज में रसाेई बनाने वालाें काे छुआ नहीं जाता था। बांटते हुए भी काेई उनकाे छू नहीं सकता अन्यथा सारी रसाेई व्यर्थ हाे जायेगी। बीच में काेई खड़ा भी नहीं हाे सकता। एक बड़ी छाैं( छुआछूत) हाेती थी, महिलाओं के विशेष दिनाें में लेकिन इसे गाेपनीय रखा जाता था। और वह स्वयं ऐसी व्यवस्था करती थी कि न काेई उसे छू पाये और न वह किसी काे। पानी के नल (धारा) काे ताे वह विल्कुल नहीं छुयेगी। उसे जानबूझकर बाहरी कार्याें में व्यस्त किया जाता था। दूध देने वाली गाय, ब्याने वाले पशु काे भी वह नहीं छुयेगी। न पेड़़ पाैधाें में पानी डालेगी, न पेड़ से फल ताेड़ेगी। इन्हें गाेपनीय ढंग से छंवाळी कहा जाता था। किसी की जिज्ञासा पर बुजुर्ग महिलायें संतुष्टी भरा उत्तर दे देती थी। कुवांरी कन्यायें इस प्रतिबंधन से मुक्त थी। ऐसा माना जाता था कि वे ससुराल में जाकर ही इस धर्म के याेग्य हाेती हैं। बहुत सारी महिलायें ताे सम्भवतया इस समय का बहुत आनंद लेती हाेंगी क्याेंकि बड़ी जिम्मेदारियाें से वे मुक्त रहती थी। हिन्दू परम्परानुसार साेडष संस्कार मनाये जाते थे और उनकी विधिवत पालन हाेता था। अर्थात मनुष्य के प्रत्येक संस्कार में सूतक प्रक्रिया का लॉकडाऊन है। पुराने लाेग सामाजिक संरचना के इसे विज्ञान, आध्यात्म और समाजशास्त्र सम्मत बताते हैं और आधुनिक बिना बहुत कुछ समझे मजाक उड़ाते हैं। अब सारा विज्ञान वही रट रहा है। सोशल डिस्टेंसिंग अर्थात सूतक।

 

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