डॉ 0 हरिनारायण जोशी अंजान
नथ सुहाग प्रतीक के लिए पूरे देश में महिलाएं पहनती हैं। आभूषण महिलाओं के सौंदर्य में चार चांद लगा देते हैं और नथ आभूषणों में भी रानी जैसा स्थान रखती है। लेकिन नथ की बात जब उत्तराखंड की आती है तो बात ही कुछ और हो जाती है। पहनने वाली की ठसक ही कुछ और। क्योंकि नथ यहां केवल सुहाग तक ही सीमित नहीं है। नथ यहां एक सांस्कृतिक पहचान और मानक भी है। जिस कारण इसके पहनावे से लस्का-ढस्का ही कुछ और। पहाड़ों के लोक साहित्य में नथ पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है।
साहित्यकार और राजनेता स्वर्गीय श्री विद्यासागर नौटियाल द्वारा लिखित तीन तोला की नथ पर टीवी धारावाहिक बन चुका है। ऐसे ही लोकगीतों में तो नथ छाई हुई रहती है। इसके उल्लेख के बिना कोई भी श्रृंगारिक गीत अधूरा माना जाता है। फिर अलग-अलग जगह से इसकी अलग-अलग पहचान है। अल्मोड़िया नथ, पौड़ी चांदकोटिया नथ, टिरियाली नथ, माल्या मुल्की नथ, श्रीनगरिया नथ आदि। सुनार ब्योलियों (दुल्हनों ) के लिए हर नथ को बनाने में अपना पूरा कौशल झोंक देता है क्योंकि वह जानता है कि कहीं ना कहीं साहित्य की किसी न किसी विधा में उसके नाम और प्रचार का उल्लेख भी अवश्य हो जाएगा।
पहाड़ों में हर त्यौहार, उत्सव, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और खुशी के अवसर पर महिलाएं सामूहिक रूप से नथ पहना करती हैं। एक लोक मान्यता के अनुसार देवी पार्वती के विवाह अवसर पर माता मैंनादेवी दूल्हा बने भगवान शिव का डरावना सा अवधूत रूप देखकर बेहोश हो गई थी। किंतु जब उसने ब्योलि बनी पार्वती को सुहाग की नथ पहनाई तो पहनाते समय नथ में उसे भगवान शिव का असली स्वरूप और सौंदर्य का दर्शन हुआ। जिसे देख वह खुशी से आश्चर्यचकित हो गई। पहाड़ों में महिलाएं नथ सुहागिन के साथ साथ उस पौराणिक संस्कृति की पहचान के लिए भी पहनती हैं जो देवोत्तम सौंदर्य का प्रतीक है। सुहाग और सौंदर्य के इस विशेष आभूषण के लिए गरीब से गरीब पिता भी अपनी बेटी के कन्यादान के लिए इसकी व्यवस्था करता रहा है। नथ पिता द्वारा ही भेंट की जाती है।